जब से शहर आया हूं

जब से शहर आया हूं हरी साड़ी में नहीं देखा धरती को सीमेंट-कांक्रीट में लिपटी है जींस-पेंट में इठलाती नवयौवना हो जैसे धानी चूनर में शर्माते बलखाते नहीं देखा धरती…

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ख़त उठा के देख लो

बिछड़े फिर देंगे आवाज़,ख़त उठा के देख लो, हो आयेंगे हम भी याद,ख़त उठा के देख लो! घिर आयेंगे आँखों में ख्वाब,ख़त उठा के देख लो हिल जायेंगे फिर जज़्बात,ख़त…

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ग़ज़ल

हमारे सर पे तब कोई जहाँ होता नहीं था ज़मीं होती थी लेकिन आसमाँ होता नहीं था हम अक्सर खेल में हारे हैं उससे इस तरह भी वहीं पर ढूंढते…

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