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जब से शहर आया हूं

जब से शहर आया हूं
हरी साड़ी में नहीं देखा धरती को
सीमेंट-कांक्रीट में लिपटी है
जींस-पेंट में इठलाती नवयौवना हो जैसे
धानी चूनर में शर्माते
बलखाते नहीं देखा धरती को
जब से शहर आया हूं,
हरी साड़ी में नहीं देखा धरती को।

गांव में,
ऊंचे पहाड़ से
दूर तलक हरे लिबास में दिखती वसुन्धरा।
शहर में,
आसमान का सीना चीरती इमारत से
हर ओर डामर की बेडिय़ों में कैद
देखा बेबस, दुखियारी धरती को
हंसती, फूल बरसाती नहीं देखा धरती को
जब से शहर आया हूं
हरी साड़ी में नहीं देखा धरती को।।

– लोकेंद्र सिंह