नज़्म

सवेरे मुंह अंधेरे छोड़ना बिस्तर नहीं मुश्किल कुछ ऐसा मगर उठकर करूं क्या कोई है ही नहीं ऐसा जिसे आदत हो मेरी और मेरे घर पर ना होने से पहाड़…

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ग़ज़ल

मैं राहे जन्नत का अस्ल नक़्शा चुरा रहा था सो उँगलियों को तेरे लबों पर फिरा रहा था मैं इसलिए भी सर अपना "हाँ" में हिला रहा था मुझे पता…

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कवर

मेरे दोस्त ज़िन्दगी के सिलेबस में हाड़ मांस से बनी एक किताब तो सभी को पढ़नी ही होती है। बस फ़र्क केवल इतना होता है कि जो हाड़ मांस से…

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