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कर्मपथ

बचपन तो यूं अपना मैंने
पन्नों में उलझाया था
इस यौवन के चक्रव्यूह का
राज समझ न पाया था..
मां ने आंखों में सपने
ऐसे कुछ सजाए हैं
बेटा रौशन नाम करेगा
उनकी ये आशाएं हैं
पिता का कंधा जिम्मेदारी के
बोझ तले झुक गया है
उम्मीदों वाला सूरज उनका,
उगते उगते कहीं रूक गया है..
माथे का पसीना उनका ये
पूछे नहीं डरता है
बिटवा तुम्हरा बड़ा हो गया होगा,
“आजकल क्या करता है?”

घर से दूर इस तपती धूप में
एक सपना लेकर आया था
भूल गया हूं आखिरी बार,
कब मां के हाथों से खाया था..
जो कर्मपथ पर मिले
हर वो मुश्किल सही है
एक उम्मीद है, एक भरोसा है,
बाकी लड़ने को कुछ नहीं है।

– अमित कुमार गुप्ता