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खुशी

रास्ते से जाते वक्त
सुंदर जगमगाती रोशनी से सजी दुकान देखी ..
क्या है ना दीवाली आ रही है,
नहीं, नजर इसलिए नहीं पड़ी कि मैं घर के लिए लेना चाहती हूँ
हमारे घर पर तो किसी को लाइट्स लगाने का कोई शौक नहीं है
नजर तो इसलिए पड़ गई
कि पिछले साल मैंने पापा के साथ
बाजार में लाइट्स लेने की जिद की थी
उस वक्त पापा ने चार सौ रुपये की एक लाइट दिला भी दी थी
जो हरे, पीले और लाल रंग से जगमगा रही थी ।

पर बाद में पापा ने चार सौ रुपये के कुछ दिये भी लिए,
जो कि ढेर सारे थे ।
पापा ने वो दिये उन लोगों को ले जाकर दे दिए
जिनके छोटे-छोटे घर थे।
ये, वे लोग थे जो दीवाली पर अपना घर रोशन करने के लिए,
दिये भी नहीं खरीद सकते थे ।
यकीन मानिए, हाथ में पकड़ी हुई उस रंग बिरंगी लाइट से जो खुशी मिली थी,
उससे करोड़ों गुना ज्यादा खुशी उन लोगों के चेहरे देख कर मिल रही थी
वो जिस भाव से पापा को देख रहे थे,
उस एक वाकये ने मुझे और मजबूत बना दिया ।

उस दिन असली खुशी का मतलब भी समझ में आया था ।

– अनुजा श्रीवास्तव