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अचार

वो रास्ता रोके ज़िद पे अड़ी थी,
मैं सामने दरवाजे पे खड़ा था
हाथ पकड़ कर बोली
चलो,,,,, चले आज वहाँ

जहाँ जाया करते थे अक्सर हम तुम,
और खो जाते थे कई-कई पहर
एक दूसरे को निहारते हुए हम,
भूल जाते थे इस संसार को
उतार फेंकते थे सारा तनाव

जो ऑफिस से घर ले कर आते थे
चलो आज फिर चले, कई दिनों बाद,
ख़त्म हो गया है ख़ुशी का वो राशन-पानी
जो सदा रहता था मेरे पास

बहुत दिनों से तुम को हँसते नहीं देखा,
नहीं देखा बच्चों के साथ बच्चा बनते हुए
और ना ही देखा है मुझे प्यार करते हुए
आओ ना…. फिर चले उस पर्वत के पार

भर लाऊंगी दामन में ढेर सारी खुशियां,
धूप का टुकड़ा और चाँद सी शीतलता सा प्यार
कुछ ख़ामोशी, कुछ खिलखिलाहटें
औ ढेर सारा ऐतबार……

इन सब का डाल कर अचार
रख लूंगी अपने पास…..
और परोस दिया करुँगी तब,
जब तुम दिखोगे थोड़ा उदास,

जीवन की आपाधापी में,
मेरा ये चटपटा अचार
हम में भर देंगा खुशियों का संसार
आओ चले हम तुम
उस पर्वत के पार………

– गीतांजलि गिरवाल