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शून्यकाल

उथल-पुथल फिर असमंजस,
है भोर भयंकर वाली सी.!
हां, मैं सहम गया, मैं सुबक गया,
कुछ “कल्पमयी” परिणामों से..!!
शब्द गढ़े उन पन्नो में,
है खेल मिलन कि ज्वाला सा.!
हां, मैं विफर गया, मैं बिखर गया,
कुछ “राशिफलित” परिणामों से..!!
समकक्ष ह्रदय की धड़कन में,
है ज्वार भयंकर ज्वाला सा.!
हां, मैं रौद्र गया, मैं शिथिल गया,
कुछ “अग्र-कल्प” ख्यालों से..!!
अख्खड़ चित्त प्रकाश चमन में
है घोर निशा का सन्नाटा.!
हाँ, मैं चैत्य गया, मैं चित्त गया,
कुछ “अल्हड़-आश” खदानों से..!!

– ललित जैन