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ग़ज़ल

वो मेरा जीवन है बाबा
उसके बिन उलझन है बाबा

जिस दिन से दूर गई है
थमी हुई धड़कन है बाबा

जिस्म हो गया ख़ाली जैसे
रूह हुई विरहन है बाबा

इस दिल में अब कोई नहीं है
यह बस्ती निर्जन है बाबा

दृश्य दृष्टि में लुप्त हो गए
सूना मन आंगन है बाबा

हृदय मरुस्थल बना हुआ है
आँखों में सावन है बाबा

-शशांक पटेरिया