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ख़्वाब वाली आंखे

रोज़ नींद से परहेज़ करने लगा हूँ आजकल,
ये जो आँखे है न रोज़ शिकायतें करती रहती हैं,

कहती हैं क्यूँ तुम इतनी तकलीफ़ देते हो?
देख रहे हो ………. क्या हाल बना लिया है.

मैं हँस देता हूँ
और मन ही मन खुद से कहता हूँ
कि अब क्या बताऊँ,

ये जो गाँव की सूनी गलियों
और कुछ अरमानों का हौसला
लेकर शहर आया हूँ न,
तो अब कुछ ख़्वाब भी दस्तक देने लगे हैं
बार बार इन आँखों पर,

बस इसलिए ही मैंने कुछ वक़्त के लिए
अपनी आंखों का दरवाजा खुला छोड़ दिया
ताकि मैं हकीकत में जी सकूँ ।

– पंकज कसरादे