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ख़्याल

कब की हो चुकी है वो कहानी पुरानी
फिर भी एक पन्ने पे से नही हटती नजर
कब से ओढ़के बैठे हम खामोशी की चादर
फिर भी मन में गम गुनगुनाता ही रहता
भीड़ से भाग कर हम अकेले खड़े होकर
बारिश में उस तरह भीगते आँसू छिपाने
जैसे सौगात मिली रब से दर्द सहने की
य वरदान मिला हँसते घाव भरने का
फिर भी मासूम दिल की धड़कन सुनते ही
यूँ कहीं से शोर मचाने लगता एक ख्याल
जैसे समंदर दिखता दूर तक कितना खामोश
लहरें मगर रो पड़ती रेत पे आते जाते।

-नागमणि मलिरेड्डी