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वक्त और मैं

जीवित रहने की कोशिश में,
मुर्दों सा ही जला गया मैं।
अपनों के हाथों से अक्सर,
वक्त वक्त पे छला गया मैं।

सबको मैंने अपना माना,
गाली देता रहा ज़माना।
सुख में मेरे साथ रहे सब,
मानों जैसे अनाथ रहे सब।
अपना था न कोई पराया,
दुश्मन को भी गले लगाया।
जब विपदा मुझसे टकराई,
अपनों को आवाज़ लगाई।
बहरे और बीमार हुए सब,
और स्वयं लाचार हुए सब।
सुख की बहुत प्रशंसा करके,
अपमानों से ढला गया मैं।
अपनों के हाथों से अक्सर,
वक्त वक्त पे छला गया मैं..।

दुनिया की यह व्यथा पुरानी,
मेरी भी सब कथा सयानी।
सुख में दुश्मन मित्र रहेगा,
और सुगंधित इत्र रहेगा।
दुख में सभी अकेले होंगे,
आँसू के बस मेले होंगे।
वक्त भी थोड़ा बीत गया है,
मैं हारा वह जीत गया है।
मैंने सपने खूब संजोए,
मुस्कानों से आँसू खोए।
पीड़ाओं की भरी सभा में,
बिना बुलाए चला गया मैं।
अपनों के हाथों से अक्सर,
वक्त वक्त पे छला गया मैं।

– प्रियांशु कुशवाहा