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सुबह

बचपन में पड़ोस वाले दादा जी के साथ हर सुबह टहलने जाया करता था,
उस समय फिटनेस-विटनेस का चक्कर नही था,
बस मस्तीखोरी में एक रोज चले गए,
उस दिन से दादाजी ने जो पकड़ा फिर हर दिन ले जाने लगे
अक्सर मैं न जाने के बहाने बनाता और वो कुछ न कुछ लालच देकर मुझे ले ही जाते
डाँटते भी जब देर करवा देता मैं
कभी कभी सोचता कि बुढ़ऊ को बोलता कौन है मुझे उठाने,

हर रोज यही सोचकर सोता कि दादाजी बीमार पड़े और मुझे रेस्ट मिले..
लेकिन दादाजी कहाँ मानने वाले थे हर सुबह अपने साथ ले जाते
वो मुझसे कहते ….सुबह की नई हवा में एक अपनापन होता है
जो अपने आप ही मौसमी बीमारियों से ठीक कर देता है…
सब छूट जाता था मगर बचपन में सुबह का टहलना नहीं

अब इस बड़े शहर में रहता हूँ मैं
हर सुबह ठीक पौने आठ बजे नींद खुलती है
एक ही ख्याल मन में आता है ……
इस बड़े शहर में कोई पड़ोस वाले दादाजी क्यूँ नही आते,
हवा और उसका अपनापन, पराया क्यों हो गया है ?
इस शहर से नाता जोड़ने की कोशिश में मेरा कस्बा कहीं छूट रहा है |

– सुलभ सिंह