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आँखें

जैसे कोई ख़्वाब हो सच
पढ़कर किसी कहानी में
जैसे कश्ती झूम रही हो
नदियों के बहते पानी में
जैसे जन्नत पड़ी हुई हो
बेरंगी बंजर सहरा में
जैसे मन भी घूम रहा हो
यादों के इक दरिया में
दो दो बैकुंठ पड़े हुई थे
क्षीर से, चेहरे की रानाई में
झील सी गहरी आँखें थी
पलकों की अंगड़ाई में
कैसे बतलाऊँ क्या कुछ हाँ
हो बैठा पल भर के मेल में
नाज़नी दिल हार चुका था
मैं आँखों के खेल में…

– पंकज कसरादे