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सपने

निकल पड़ा था घर से, छोड़ गली, नुक्कड़ और रास्ते,
गुज़रे थे जहाँ मेरे बचपन और जवानी के लम्हें,

एक नए शहर की ओर, जहाँ थे अजनबी और अनजाने रास्ते,
पूरे करने की ख़्वाहिश लिए, अपने सारे सपने,

इधर-उधर, यहाँ-वहाँ, भटकता मंज़िल पाने के लिये,
लेकिन हार क्यूँ जाती हर कोशिश, यह कोई ना जाने,

उदास रहता इस ग़म में,
कि सपने मेरे अब ना पूरे हो पाएंगे,

लेकिन भर जाता जोश से अगले ही पल में,
यह सोचकर, कैसे पूरे हो पाएंगे सपने अपनों के,

फिर एक नयी आशा के साथ कोशिश करता हूँ,
शक्ति पूरी लगाकर हर इम्तेहान देता हूँ,

कि आया वो दिन भी, जिसे देखना मै चाहता था,
मंज़िल की ओर मैंने पहला कदम बढ़ाया था,

अब बस यूँ ही कदम बढ़ाते जाना है,
सपने, अपने और अपनों के, पूरे करते जाना है..

– कुशल रत्नपारखी