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ये मेरी जिन्दगी

शाखों से टूटी मैं नाजुक सी पत्ती
क्यूँ खुदा मुझ पर तेरी रहमत नहीं
वो शाखें जो मुझसे कभी खुद को सजाती थीं
न मेरे बिन कभी अपनी बाहें फैलाती थीं
कभी उठकर तनकर मुझे ओढ़े खड़ी थीं
कभी मेरी हरियाली में खुद को भिगोए खड़ी थी

वो मद्धम हवा में मेरे झूम जाने पर
जो खुद इठला कर तारीफें बटोरती थीं
उन शाखों के लिए आज मैं कुछ भी नहीं हूँ
टूट बिखर कर, रेत पर
पैरों के तले रौंदी गयी मैं
पर कोई न पूछे मेरा हाल

वो शाखें आज नयी पत्तियों से सज रहीं हैं
मेरा वजूद खो गया
थम गया वो साथ
फिर भी अब और कोई शिकन नहीं
क्योंकि शायद
यही थी मेरी छोटी सी जिन्दगी…

– अंकिता दास