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विस्थापन

विस्थापन इंसान का, देह का,मन का…

पनप रहा है मेरे
अन्दर नक्सलवाद
प्रतिबंधित हूँ मैं
अपनी ही देह में
बहुत चलना चाहा
तुम्हारे साथ
मिलकर मुख्य धारा में
पर मैं तिरष्कृत,अपमानित
उपेक्षित ही रही
अपनी ही जड़ों से जुड़े
रहने का भी सह रही हूँ दर्द
फ़िर भी विस्थापित की
विस्थापित ही रही
पाने को अपना हक़
उठा नहीं सकती हथियार
मैं नारी हूँ और
नक्सलवाद पनपता है बस मन में
उसे अमली जामा पहनाना
आड़े आ जाती हैं मन की ज़मी
विस्थापित होने की पीड़ा जानती हूँ

– सुनंदा जैन ‘अना’