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गौरैया

गौरैया
कहाँ खो गई हो,
मेरे बचपन की तरह।
फुदकता था मैं भी,
साथ तुम्हारे।
चहचहाहट तुम्हारी,
आज भी गूंजती है ,
अन्तर्मन में मेरे।
कहाँ हो तुम?
लौट आओ, लौट आओ।

गौरैया
याद है मुझे,
जब पकड़ता था तुमको
छोटी सी टोकरी से
लकड़ी की छड़ी लगाकर
बड़े ही जतन से।
रंगता था तुम्हें,
स्वप्नों से अपने।
भरता था उड़ान,
तुम्हारे साथ मैं भी
खुले आकाश में,
स्वछन्द पाखी की तरह।

गौरैया
लौट आओ
हमारे लिए न सही,
उनके लिए, जो चाहतें हैं
उड़ना – फुदकना और चहचहाना,
साथ तुम्हारे।
भर गया है बचपन उनका,
बेजान खिलौनों से।
लगा दो पंख ,
सपनों में उनके,
जो उड़ सकें,
अनंत आकाश में।
भर दो चहचहाहट और हौसला भी
जीवन में उनके,
जो दिखाए उनको
विस्तृत दायरा
बचपन की आज़ादी का।

गौरैया
जब तुम करीब थी,
रहती थीं साथ हमारे
बेझिझक,एक ही घर में,
करती थीं भरोसा
मानव पर।
पर नहीं दोष तुम्हारा,
विकास की चाह में, किया उल्लंघन
प्रकृति के नियमों का।
दूर किया तुमको, अपने जीवन से
और घर के आँगन से।
अब वही यक्ष प्रश्न,
उठा है जहन में
तुम्हारे अस्तित्व का ।
बचपन और उल्लास का ।
कब गूंजेगा ?
आँगन मेरा, तुम्हारी चहचहाहट से।
बैठोगी कब ?
आँगन या बरामदे के किसी कोने में।

गौरैया
अपने छोटे पंखों से,
दूर का दाना, चोंच से लाना
अपने बच्चों को खिलाना,
परवरिश करके,समर्थ बनाना।
किया स्थापित,
पालक का आदर्श।
बसेरा तुम्हारा,
किसी कोने में बनाना
तिनका -तिनका जुटाना
मेहनत और लगन का,
सच्चा सबक
सीखा है तुमसे।

– परितोष कुमार शिल्पकार