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मैं जीना चाहता हूं…

जानती है श्यामा,
तुम्हरा साथ न इ शहर में हमको
अपने गांव जइसा एहसास कराता है।
अइसा लगता है जइसे तुम
अपने आप में एगो गांवे समेटे बैठी हो।
ओही सादगी, ओही भोलापन, ओही सबकुछ…
और सब तो लगता है
जइसे टाईम मशीन पर सवार है इहां।
हर तरफ बस भाग-दौड़। कहीं कोई ठहरावे नहीं है।

अईसा नहीं है मोहन।
तुम गांव से बाहर निकलिये नहीं पा रहे हो
इसलिए तुमको शहर का तौर-तरीका पसंद नहीं आता है।
इहां आए करीब एक साल हो गया
लेकिन तुम्हारा ध्यान अभी भी गांवे में लगल रहता है।
हम मानते हैं कि इहां गांव जइसन शांति नहीं है
और न कभी मिलेगी ही,
लेकिन सुविधायें तो ज्यादा है न वहां से।

ई बात तो तू ठीके कह रही है
पर अइसन सुविधा का क्या फायदा
जो जिंदगी से शांतिये छिन ले

अब एतना भी नेगेटिव मत हो जाओ।
अइसन बात होती त एतना लोग इहां नहीं रहते।

एही तो बात है।
इहां लोग न सिर्फ रहते ही हैं,
जबकि गांव में जीते हैं।

मैं भी जीना चाहता हूं…

– राहुल रंजन