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चाँद

आज चलो इतना काम करता हूँ
तुम्हारे लिए एक नया चाँद खोजता हूँ
अरसे से सब एक ही चाँद को देखते हैं
वो भी अब मटमैला हो गया है
धुंधला सा
रोज रोज घटता बढ़ता है,
पूनम से अमावास तक !

तुम्हारे लिए पूनम का चाँद ही ले आता हूँ
मन करे जब माथे पे बिंदिया सा सजा लेना
और रोज शाम घर के पिछवाड़े
आँगन में खूंटी पे टांग देना
कहीं जायेगा नहीं……

बड़ा चंचल है !
जब शाम हम आँगन में साथ होंगे
वो झिलमिल सा तुम्हारे चेहरे पर चमकेगा
पर डर एक ही सताता है
इस दिल को
कहीं वो तुम से शरमा ना जाये
और खूंटी की खील से छिटक के
गुम ना हो जाये
आखिर
एक ही आँगन में
दो चाँद कैसे सजेंगे …………..!

– सचिन बिल्लोरे ‘आस’