You are currently viewing भीड़

भीड़

चलता हूँ रुकता हूँ
सोचता हूँ बोलता नहीं,
बोलता नहीं कभी भी मैं
दोहराता हूँ बस
मैं एक भीड़ हूँ शायद

खुद ही खुद से लड़ता हुआ
खुद ही खुद को समझाता हुआ
वो अंत जो कभी आये भी न
वो अंत जो मृगतृष्णा सा
सम्मोहित किये हुए है
मेरे साथ खड़े इस भीड़ में सबको,
एक भीड़ हूं मैं

खुद को क्यों न मानो भीड़,
क्या अंतर है मुझमे तुझमे,
बंद मुठ्ठी में रेत जैसे फिसलते मेरे ख्वाब
तुम्हारे भी तो कुछ टूटे होंगे,
यूं ही कोई भीड़ थोड़ी बनाता होगा
इस भीड़ में शायद

वैसे जहाँ इतना कुछ होता है
भीड़ में ,पे कुछ लिखने को नहीं मिलता
पर एक दूर से आती आवाज
उस एकांत में दुनिया भर की
कहानियाँ सुना जाती है
फिर भी मेरा मन
मुझे भीड़ में ले ही जाता है

– ब्रजेश पाठक