ढलती शाम की दहलीज़ पर….
हाथ में हाथ डाले,अलविदा के वक़्त
जो हमनें शहर के बाहर,शज़र लगाया था….
दे आता हूँ,उसको अपने आँसुओं की नमी….|
तुम्हारी अंतिम प्रेमपत्र को,बटुए में छिपाकर
कल मै भी छोड़ आया,वो शहर…. .
सफ़र-ए-रोज़गार के सिलसिले में,तुम्हारी यादों में
ठहरा एक रात उस शहर में…..
लड़खड़ाते पाँवो से,पहुँच गया पेड़ के पास…..|
पता है तुमको…..
दो बसंत के थपेड़े झेलकर,
सहर में,रवि की पहली किरण से
उसमे दो फूल खिल गए है…..|
तुम्हारे शब्दों को सीने से लगाकर
उसकी छावँ में बैठकर,चिल्ला उठता हूँ….
कि आ जाओ लौट कर तुम,
और मुकम्मल कर दो,इश्क़ के दस्तूर को….|
पता है मुझे तुम नहीँ आओगी
कभी नहीँ आओगी…..
कभी चली आना तुम,एकाकी बदन लिए
उसी पेड़ के नीचे मेरी हसरतों की मज़ार है….|
चढ़ा देना मज़ार पर दोनों फूल तोड़कर…..
हसरतों को दफ़्न करके मै बन गया हूँ,
आज के इंसान सरीखा……|
भाव,मर्म,से कोसो दूर,
इश्क़ बिना भी धड़क रही मेरी धड़कन…..
लेकिन थमेगा कभी सफ़र,हमारी ज़िन्दगी का…..|
फिर..
नीले आकाश में हम दोनों फिर बना लेंगे…..
अपने प्यार का आशियाना…..
जहाँ सिर्फ इश्क़ खिलेगा
सिर्फ इश्क़