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बारिश

अक्सर दरख़्तों के
सब्ज़ सोने को, अलगनी बना
बारिश अपने मोती टांग देती है
सोचती है, उसके नाज़ुक अहसास
ज़मीदोज़ न होने पाएं

जब बादलों की बाहों से
एक असल सोना, आज़ाद होगा तो
बारिशी अहसास अपने
नर्म पैरहन
के कोये से एक तितली की तरह
आहिस्ता-आहिस्ता
बाहर हवा में ही पाँव रख
जवाँ होंगे, धूप का लिबास पहने
ये अहसास ज़माने की
चुंधियाती आंखों से
बच वापस अपने
वजूद का हिस्सा हो जायंगे

और हम सोचते हैं कि
बारिश सोचती नहीं कि
उसके आंखों से ढलकने
सब्ज़ सोने पे अटकने
सागर में समाने और
ज़मींदोज़ होने में कोई फर्क़ नहीं होता..

– सुनंदा जैन ‘अना’