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बरगद का बलिदान

मैं बरगद हूँ
नहीं हुआ हूँ बूढ़ा
मैंने तरुणाई भर पार करी है।
छुआ नहीं है अभी धवल हो,
जूट-जटाओं ने धरती को,
रंगत मेरी हरी भरी है।

अभी आई थीं,
कुछ दिन पहले
वट-सावित्री के पूजन को,
सजी-धजी सी,
बहू-बेटियाँ, माँ बहनें सब।
धर्म-परायण
कथा-कहानी सी कहती सब।
मांग रहीं थीं मन्नत मुझसे
सुख देना तुम, दुख हर लेना
बांध गईं थीं
लाल चुनरिया, कुछ डोरे, कुछ काले धागे,
जता भरोसा।
मेरी जड़ पर बड़े मान से
लोटे से जलधार चढ़ा
परसाद परोसा।
मैं भी ख़ुश था उन्हें देखकर
कितनी ख़ुश थीं खिली-खिली,
परकम्मा करके।
धौक दे रही थीं आदर से
मुझे मनाने दीपक धरके।

पिछली चौदस तक तो मैं
आनन्द मग्न था।
इतराता था,
सड़क किनारे खड़ा भाग्य पर
मेरी पत्री में निश्चित ही
उन्नत राशी
शुभम् लग्न था।

कोई पथिक हो पैदल-पैदल
या ट्रक वाला।
शीश नवा कर रख जाता है
मेरी जड़ में बनी मढ़ी पर
अपने हाथों से इक माला।
देख रहा हूँ
रुक जाते हैं कई ड्राइवर
मेरी शीतल छाँव समेटे।
अपना चूल्हा सिगड़ी सुलगा
गन्ध सुंघाते
मुझे रोटियों की भीनी सी
खा-पी कर कुछ गपशप करते
सारे झंझट पुड़िया में रख
अपने अधरों गाली व अट्टहास लपेटे।

बीते शुक्लपक्ष की ही तो
बात अभी तक याद मुझे है
आम बौर कर
कितना ख़ुश था।
महुए ने उन्मादित हो कर दे डाले उपदेश सभी को
जैसे कोई दिव्य पुरुष था।
कितनी ख़ुश थी इमली रानी
उम्मीदों के चढ़े दिनों से।
वो साले सागौन साल भी
डाल हिला कर
डाल रहे थे डोरे कैसे
तरुणाई के देहरिया पर
खड़ी नीम को देख देख कर,
बदमाशों से।
फूटी थी मकरन्द
फागुन की अगवानी करने
घने पलाशों से।

वो नन्हीं सी सिरमुनिया भी
उल्लासित थी
आल्हादित थीं खड़ी किनारे
छुटकी-मुटकी बेल-बूटियाँ,
पीपल काका मस्त मग्न हो
गीत मधुर से मेघराग में
सुना रहा था।
उसके पत्तों में
आलौकिक संगीत बहा था।

नहीं बिसरता
गई अष्टमी पर चिड़ियों ने
कैसा शोर मचाया आकर।
दुर्गा पूजा से लाईं थीं
हलुआ अपनी चोंच दबाकर।
कोई अकेला बाज, चील तो,
काले कौए झुंड बनाकर,
रात ठहर कर तोते मुझको
कितने किस्से कह जाते हैं।
उल्लू व चमगादड़ आकर
खुसुर-पुसुर कर बतियाते हैं।

गिलहरियाँ, बन्दर के बच्चे
नागदेव, ज़हरीले बिच्छू
सबके हैं स्वभाव अलग, पर
मैं तो सबके लिये एक सा
देता रहा पनाहें सबको।
मेरी डालों ने दी हैं
अपनत्व भरी गलबाँहें सबको।

ओह!
अचानक यह क्या पाया।
आवा-जाही, नाप-जौख थी
डरे-डरे से
पीपल काका,
महुआ मामा,
हवा बदलते देख सभी का
दिल घबराया।
कुछ अपशगुनी बातें आकर
डाल-पत्तियों से टकराईं।
बड़ी-बड़ी बेडौल मशीनें घूम रही थीं,
जैसे डोल रही भयानक
भूत-पिशाचों की परछाईं।

कातर-कातर सा गुलमोहर,
कुबड़ी बेर सयानी सहमी।
सभी बड़े बेचैन बुझे थे,
वार कुल्हाड़ी के कानों में
धूल हाँफ़ती सुना रही थी।
धराशायी आवाज़ भयानक
घायल की चित्कार साफ़ थी।
नई कोंपलों का क्रन्दन था,
रहम नहीं था, थी बेरहमी।
अजनबियों की गहमा-गहमी।
धीरे-धीरे
चीख-पुकारों, धूल-गुबारों, शोर-शराबों
हईया-हई की दहशतगर्दी
और करीबी नाप रही थी।
आने वाली
घोर मुसीबत भाँप-भाँप कर
रूह सभी की काँप रही थी।

मैं संकेत समूचे पढ़ता
सभी अशुभ थे रौतेले थे।
मुझे लगा हम सब कुछ देकर
सौतेले हैं, सौतेले थे।

यक्ष प्रश्न है मेरे सम्मुख
मेरे मन में तैर रहा है
प्यार बाँटते रहे युगों से
अपना किससे बैर रहा है।
मैं बचपन से देख रहा हूँ
सड़क हाई-वे बनते-बनते
पगडंडी से गिट्टी-मिट्टी
फिर डामर का रंग चढ़ा था।
बढ़ती चक्रचाप से जाना
शायद नया विकास खड़ा था।

बड़ा निठुर है बहुत क्रूर है
यह विकास का देव भयानक
बली चढ़ेगी इसी देव पर
निरीह खेत की, हरियाली की
कुछ ठंडी सी छाँव जलेगी
सपनों वाले आँगन भी कुछ।
कुछ चूल्हे-चौके जाएंगे।
बमभोले भी कहाँ बचेंगे
बजरंगी भी ढह जाएंगे।

आम महूड़ा पीपल इमली
नीम सगौना साल सलाई
सीताफल अमरूद करंजी
छींद खजूरा खैर खेजड़ा
चारौली चक केर रुसल्ला
हर्र बहेड़ा और आँवला
धौर धौंकड़ा बीजा तेन्दू
आक धतूरा बिना बुढ़ाए
गुलमोहर गूलर गबरू से
भरी जवानी कट जाएंगे
जामुन की गदराई छाया
ये परदेशी यूकेलिप्टस
शीशम व शहतूत मिटेंगे
हरसिंगारी गंध बुझेगी
अमलतास के कोमल किस्से
टेसू के रंगीले सपने
चन्दन की अभिजात्य डालियाँ
मेहंदी के सब शगुनी पत्ते
सेमल झुंड बाँस के सारे
अमरबेल के सभी सहारे
बील बबूला अर्जुन घिरिया
महानीम, वट कीकर रिमझा
बेकल बेर करौंदा खट्टा
कई ताड़ के झाड़ हठीले
नीले पीले फूल सजीले।
इस विकास की राह बनाने
कुछ दिन में ही हट जाएंगे।
टुकड़े-टुकड़े छट जाएंगे।
मैं भी बस क्या कर सकता हूँ
देता आया अब तक छाया
साया बन जाऊंगा कट कर।
यही योगदान है मेरा
इस विकास को दूंगा हट कर।

ये फागुन की सुरभित सुबहा
वासंती पुरवाई-पछुआ
सूरज की तेजस्वी किरणें
पूरनमासी छन-छन छनती
घनी अमावस की आवाज़ें
पत्तों का संगीत मधुरिम
मदिर साँझ के गीत सुहाने
ताल बजाता सावन भादों
मेरी डालों बैठ झूमते
सतरंगी पंखों के पन्छी
बस कुछ दिन को और शेष हैं।
मेरी साँसें तुम्हें पेश हैं।
गमछे का सिरहाना रखकर
मेरी जड़ बैसाख बिचारा
अब कैसे सुस्ता पाएगा।
तपन जेठ की माथे धर कर बेचारा जल जाएगा।

ले जा चिड़िया तेरे तिनके,
नीड़ बनाना और कहीं पर,
जहाँ उड़ानें सीख सकेंगी
तेरी आने वाली पीढ़ी।
चींटी-चींटे बरबूटे सब,
छोड़ मुझे तुम जल्दी जाओ,
गोह-खोह से बाहर आ जा,
मकड़ी तेरा जाल हटा ले।
ओ शहद की मक्खी अपने
कुनबे भर को शहद चटा ले।

बहू-बेटियाँ माँ-बहनें सब
लाल चुनरिया धागे डोरे
पथ के राही दूर देश के
ट्रक वालों की सुलगी सिगड़ी
माथे का बेचैन पसीना
पहिये की रफ़्तार अंधाधुंध
मेरी एवज के कनेर कुछ
किसे रहेगा याद बताओ
यह बरगद बलिदान हुआ था।
कैसे लहूलुहान हुआ था।
इसकी लाश उठाई थी तब
फ़ोर लेन निर्माण हुआ था।

-चौ. मदन मोहन समर