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फुरसतें महँगी होने लगी है

ज़िंदगी की भागदौड़ में खुशियों की तंगी होने लगी है

कहा गया वो बचपन का माँ की गोद में सोना

ना रहा वो लड़कपन में चोट लगने पे रोना

क़िताबों के ढेर पे जमा धुल होने लगी है

चाय की चुस्की और अखबार की जुगलबंदी ना जाने कहा खोने लगी है

वक़्त है पर वक़्त नहीं, ये क्या मायाजाल है?

रुपये कमाने की आपाधापी में हर किसी का यही हाल है

ढूँढता हूँ उन लम्हों को जिनमें मैं कुछ न किया करता था

रात को छत पे लेटे हुए तारे गिन लिया करता था

ये तारा मेरा वो तारा तेरा, ऐसी बातें कम होने लगी है

क्या फ़ायदा उस फुर्सत का, जिसके खत्म होने का डर सा लगे

इतवार की हर शाम ढलते ढलते, सीने में कुछ दर्द सा लगे

कर लू कितनी भी कमाई, सुकून की पूंजी कम होने लगी है

कुछ बनने की होड़ में खुद को खो के मेरी आँखे नम होने लगी है

अपनों के साथ में हँसी -मस्ती असल नहीं अब भ्रम होने लगी है

आओ चलो फिर से हम अपना कल कमाने चले

हँस सके फिर खुल के जिनमें , वो पल कमाने चले

अंग्रेजी रट रट के दुनिया फिरंगी होने लगी है

हम जैसे गरीबों के लिये अब फुरसतें महँगी होने लगी है

-सौरभ बापत