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इश्क़ जताता मैं

नज़्म गज़ल असआरो में,
यूँ ना तुमको गाता मैं,
किसी रोज तुम मिलती तो,
हाँ शायद इश्क़ जताता मैं।

न कभी होश में होता मैं
तेरी नींदों में सोता मैं
तेरे संग हंसना होता
तेरे रुदन में रोता मैं
पर अब खुद से लड़ता हूँ
खुद से हार जाता मैं
किसी रोज़ तुम मिलती तो
हाँ शायद इश्क़ जताता मैं

तेरी मेरी चर्चा होती
हर गलियों में चौबारों पर
तेरा-मेरा नाम लिखा
होता कालेज की दीवारों पर
तू जो क्लास में न होती
तो तेरी प्रॉक्सी लगाता मैं
किसी रोज़ तुम मिलती तो
हाँ शायद इश्क़ जताता मैं

बस यूँ ही तुझको तकता मैं
तुझको लिखते न थकता मैं
जो पूरे ही न कर पाऊँ
वो वादे न पटकता मैं
तू बात चाँद की करती तो
तुझको ही चाँद बताता मैं
किसी रोज़ तुम मिलती तो
हाँ शायद इश्क़ जताता मैं

घर का काम संग करते
एक दूजे से जंग करते
चाय कभी टपरी पर पीते
कभी क्लब में हुड़दंग करते
जम्मू शिमला में लोचा है
तुमको गोआ ले जाता मैं
किसी रोज़ तुम मिलती तो
हाँ शायद इश्क़ जताता मैं

किसी और से अब इज़हार
करने में डर लगता है
सोचता हूँ मर जाऊँ मैं
पर मरने से डर लगता है
तेरी यादें और ख्वाब लिए
यूँ ही अब दिन बिताता मैं
किसी रोज़ तुम मिलती तो
हाँ शायद इश्क़ जताता मैं।

– नीलेश बोरबन