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नियति

मैं उम्मीदें तोडूंगा मैं आशंकाएं पैदा करूंगा
दूर होकर भी मेरा डर हमेशा तुम्हें सिहरन देगा
पास जो होगा पायेगा स्नेह और सम्मान मुझसे
मैं लुटी हुई जागीर की सिपाही नही शासक हूँ
अब भी मेरे बाहुबल से नींव धंसा सकता हूँ मैं
अब भी अपनी करुणा का मान बढ़ा सकता हूँ मैं
मैं वही शून्य हूँ जो सूर्य बनाता है
मैं वही प्रश्न हूँ जो अनसुलझा है
मेरे अलावा मुझे कोई भी हरा नही पायेगा
अपनी ज्वलंत अग्नि से स्वयं मैं भस्म हो जाऊंगा
लेकिन मैं उसी अग्नि के उपरांत बची ठंडी राख से
पुनर्जीवित होने वाला सुरखाब हूँ।
तुम कभी मुझे पराजित नही कर सकते
मेरी नियति मेरे हाथों या मस्तक में नही
वरन मेरी भुजाओं के बाहुबल और मस्तक के ज्ञान में समाई है।
मैं अनंत काल तक सिर्फ़ इसी जिज्ञासा में जीवित रह सकता हूँ कि
अब भी मैंने संसार को जीता नही है
अभी यह एक काम और शेष है।

– सुलभ सिंह