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जिम्मेदारियां

ये जिंदगी कैसी अठखेलियाँ करती है
कि ख्वाब भी हमें सच्चे लगते हैं

ये उन दरवाज़ों को खोलती हैं
जिसपे सदियों से ताले पड़े हैं

पर अब लगता है मुझे कि
मैं धो दूँ उन अरमानों को
जो धूल की तरह चेहरे पर लगे हैं

ये कैसी विषम परिस्थिति है
जिसने मुझे खुद में उलझा लिया है
जो निकलना चाहता हूं तो अटक जाता हूं
पर निकलता हूँ तो खुद को अकेला पाता हूँ

वो डर कि सबकुछ छूट जाएगा
पर कटाक्ष यह है कि क्या अपना है ?
जिसे संभाले बैठे हैं कबसे

पर सच मात्र का छलावा है यह तो
क्योंकि वो कभी हासिल ना होगा
जिसके सपने हमेशा देखा करते हैं

जो जोड़ता हूं खुद से
सुकून मिलता है अन्जाना सा
पर मोड़ता हूं मुँह तो
बस बेचैनी हाथ लगती है

कभी उस ओर बढ़ते हैं कदम
मिलता है संकेत खुशियों का
फिर लौट आते हैं पग अनायास ही
जब अहसास होता है छलावे का मृग मरीचिका सा

लौट आता हूं फिर अपनी जिम्मेदारियों पर
दिमाग के कटघरे से गायब होती है वो बात
पर छिपी होती है दिल के किसी कोने में ज़रूर|

– कृति वर्मा