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नगर

नगर
तुम अपने ही हो
निभाया है साथ तुमने
मेरा मुश्किलों में भी,
सच्चे मित्र की तरह ।
करीब से देखी है
तुम्हारी सुंदरता और सजीवता
नवयौवना प्रेयसी की तरह ।
नगर
नहीं जरुरत तुमको
किसी प्रमाण की,
मैं ही नहीं सभी जानते हैं
आधे-अधूरे रूप
तुम्हारे अतीत के।
होंगीं इमारतें सुन्दर
या अतिशेष वीराने,
इतिहास गौरवमयी तुम्हारा
तो कहीं खण्डहर पुराने।
तुम देखते आये युगों से
जीत को और हार को,
ध्वंस को, निर्माण को।
नगर
जन्म लिया तुमने,
अनेकों बार
देखा होगा स्वयं ही
यौवन को अपने,
ढलती हुई साँझ की तरह
धीरे धीरे ।
पर आज
तुम फिर युवा हो
सम्पूर्ण कलाओं
और क्षमताओं के साथ
बिल्कुल मेरी तरह ।
स्मृतियाँ अतीत की
छिपा रखीं हैं तुमने,
मन के किसी कोने में ।
जानता हूँ वर्षों से
सपाट सहजता लिए,
तुमको और तुम्हारे स्वाभाव को,
तुम्हारे सान्निध्य को भी
जो पाया है मैंने
तुमसे अपने पिता की तरह ।

नगर !
पर ये क्या?
बढ़ा रहे हो अपराध..!
और कचड़ों के ढेर भी
तुम दे रहे हो हवा भ्रष्टाचार को,
विकास के नाम पर ।
कराहती आवाजें
किसी अबला की
कर रहे हो गुम,
घर्र घर्र करती
ट्रैफिक की मातमी आवाजों से।
तुम दे रहे हो अवसर
किसी लुटेरे को,
जो खींचता है जंजीरें
गले के किसी से,
बेझिझक, बेखौफ़।
या बढ़ा रहे हो दूरियाँ
अपने ही किसी साथी से,
कर रहे हो घालमेल
किसी अमूर्त से ।
तुम खोल रहे हो द्वार
भौतिकवादी मानवता के,
वीभत्स और डरावने
नितांत एकांत के भी ।
नगर !
मुझे पता है
तुम भूलना चाहते हो
उन स्मृतियों को,
जो चुभी हैं तुम्हारे हृदय में,
तीखी फाँस की तरह ।
तुम जाना चाहते हो
आगे और आगे,
भूमंडलीकरण की दौड़ में।
पर रहे स्मरण
खो न जाये अस्तित्व
और पहचान तुम्हारी,
जो बनायी तुमने
बीते युगों की
धुंधली स्मृतियों से ।

– परितोष कुमार शिल्पकार