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तुम्हारे हाथ की चाय

‘चाय बहुत पीने लगे हो…डायबिटीज हो जायेगी’
अक्सर कहा करती थी तुम, बालकनी से उठते हुए
और फिर ख़ुद ही बना के पिला भी देती थीं

तुम्हें पता जो था कि तुम्हारे हाथ की बनी चाय से भी
मैं उतनी ही मुहब्बत करता हूँ,
जितनी कि तुमसे

मैं घुमक्कड़ इंसान, जहाँ भी जाता, इक चाय ज़रूर पीता
और पीते ही मूँ भी बिगाड़ लेता
लोग सोचते अजीब आदमी है, इतनी अच्छी चाय भी पसंद ना आती इसको
पसंद आती भी कैसे, उसमे तुम्हारा स्वाद जो ना होता

तुम, तुम्हारे हाथ की चाय, और हमारी बालकनी
बस यही तो दुनियां थी मेरी

मगर अचानक ये कैसी चाय बनाने चली गई तुम मेरी जान
कि जिसके इंतज़ार में,
मैं कभी ना ख़त्म होने वाली डायबिटीज लिये बैठा हूँ
और देख रहा हूँ….बालकनी में खाली पड़ी उस उदास कुर्सी को।

– जीतेन्द्र परमार