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डर

एक लंबे सफर के बाद
मैं एक रेत के टीले सा ढह गया।
लगा कि रेत ही हूं क्योंकि बड़ा आसान होता है
रेत को किसी भी रूप में ढालना।
रास्ते में मुस्कुराकर कुछ भाव लाए चेहरे पर
तुमने शायद कहा था इसलिए |
मैं भी बहुत तल्लीनता से इकट्ठा कर रहा था
कुछ ख्वाब।
खुशी, हंसी, गम शब्द कोई भी था, लेकिन अर्थ तुम।
तुमने भी मेरे ख्वाबों को
कोई नाम कोई अर्थ दे दिया ।
लेकिन
अब डर लगता है
ऐसा न हो कि जब अगला दिन आये
तो कुछ न बचे
एक आंधी उड़ा ले जाए
सब कुछ।
फिर हम और तुम दोनो
महसूस करें अलग-अलग
सूखे आंसू
रूंधे गले
सीने में उठती पीर
और पेट में
उड़ती तितलियां
तब सोचे कि हम कितनी शिद्दत से
महसूस करते थे
छोटे-छोटे सुख-दुःख , एक दूसरे का होना
फिर कहें
जिन्दगी ऐसे ही दूर रहकर
सुख-दुःख सहेजने का नाम है।

– योगेश तिवारी