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जीवन एक विलाप है

मेरे बैरागी मन में जो उठती हिलोर है
वह मेरी कवित्व प्रवृति नहीं कुछ और है

ये पक्षी का कलरव, ये सूरज की आभा
मेघों से गिरती तपती भूमि की आशा

कोई उपमा सा नहीं, प्रकृति के चित्रकार के
अनगिनत ऋण हैं, उसके हर उपहार के

आशा और निराशा के रंग हजार हैं
यहाँ उम्मीदों का दामन थामे, चलते बाजार हैं

किनारों की आस में चलती, कश्ती का रंग हैं
एक डोर के सहारे उड़ान पर निकली, हर पतंग है

नश्वर है सब कुछ, जीना भी एक विलाप है
कभी पाने का कभी खोने का, हर किसी का यही संताप है

पीड़ा है अधरों में, आत्मा का संगीत है
द्वेष है मन में, पर प्रकट होती प्रीत है

विरक्त है मन, यह असत्यता का चोला है
सत्यता की भ्रामकता से जीवन का पथिक डोला है

यथार्थ से परे हम प्रलोभन में उलझे रहते हैं
जीवन के दर्शन का मर्म नहीं हम सहते हैं |

– श्वेता पांडेय