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ज़रूरी तो नहीं

जिसे बख़्शा हो बेहतरीन नज़रों से,
उसका नज़रिया भी अच्छा हो,ज़रूरी तो नहीं

जिसे मालूम हो हर मर्ज़ की शिफा,
मसीहा भी बने वह,ज़रूरी तो नहीं

जिसे मिली हो आवाज़ में मिठास
नरम लहजा भी हो उसका,ज़रूरी तो नहीं

जुगनू ,तारे, खामोशी ,तन्हाई
इन सबसे भी हो मुख़ातिब हुज़ूर
हर रात चांदनी तुम्हे मयस्सर हो,ज़रूरी तो नहीं

जिस ईमारत मे हो महंगे फानूष,
रेशमी परदे ,नर्म फ़र्श, रंगीन दीवारे
घर भी हो वो मकान,ज़रूरी तो नहीं

सोना-चांदी,रोज़ी-रिज़्क़,ताक़त-दौलत,इज़्ज़त-शोहरत
नवाज़ा हो जिसे हर नियामत से
इंसान भी हो वो आदमी,ज़रूरी तो नहीं

जिसके नेक इरादे हो,सादगी ही तबियत हो,
दो-तीन ना चेहरे हो अदायगी के ना उनपे पहरे हो
भेजा हो जिसे रूहानियत सी सीरत लेकर,
उसकी सूरत भी ख़्वाबिदा हो,ज़रूरी तो नहीं

रंजिशें वक़्त की जिसने उठाई हो,
गर्मियों के कपड़ो मे सर्दियाँ बिताई हो
माँ-बाप का जिसपर ना साया हो,
खुद को बेच कर जिसने कमाया हो
मुकर्रर हो जिसे जिंदगी में तमाम ग़म-ओ-तकली़फे,
दुआ भी ना मांगे वो,ज़रूरी तो नहीं।

-सुमैया खान