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जयघोष

शून्य को मैं साधता सा
कुछ पल को ही आगे बढ़ा था
और देखो वह तिमिर
जयघोष करता पीछे पड़ा था

वक्त की सारी दलीलें
सहसा यूँ भी मान ली कब?
जिन्दगी से हार बोलो
बताओ मैंने ठान ली कब?

यूँ तो वाजिब प्रश्न थे कि
कब कहां कैसे कटेंगे
राई जैसे दिन भी बोलो
क्या पहाड़ से कटेंगे?

लालसाएँ सारी सिमट कर
दिल के कोने में आ समाई
ख्वाब की तासीर भी
लगने लगी मुझको पराई

रात के अंतिम पहर तक
डर मुझे घेरे रहा था
और था कि मैं भी उसको
बाजू में जकड़े खड़ा था

शून्य को मैं साधता सा
कुछ पल को ही आगे बढ़ा था
और देखो वह तिमिर
जयघोष करता पीछे पड़ा था…

-पंकज कसरादे