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गूँगा

जख्मों से भरा हूँ
मुस्कुरहटों से छिला हूँ
संवादों को मुखबिर बनाकर
मैं खुद को मोल रहा हूँ
मैं गूँगा बोल रहा हूँ
कोई संताप न कोई है पीर
मैं टूटा आइना हूँ काँच का
बनती बिगड़ती तकदीर को
मैं ख्वाबों से तौल रहा हूँ
मैं गूंगा बोल रहा हूँ
आवाजों की बस्ती में
मौन खड़े हैं सारे लोग
मैं चिल्लाकर दर्द को
अपनी आँखों से बोल रहा हूँ
मैं गूँगा बोल रहा हूँ..

– श्वेता पांडेय