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कल के अखबारों के लिए

आख़िरी दिसंबर की इस सर्द रात
अपने एकांत कमरे में
जब मैं तलाश रहा हूं
अपनी नींद के लिए एक सुरंग
कमरे के बाहर
पसर चुका होगा कुहासा
सड़क की नींद में

खुले आकाश के नीचे सोए
किसी आदमी के सपने में अब तक
आ चुकी होगी एक गरम रजाई
किसी भूखे बच्चे की नींद में
पके भात की खुशबू से
महक रहा होगा घर-आंगन
किसी जवान होते लड़के की
उनींदी आंखों में
समा चुकी होगी अबतक
पड़ोस की कोई सलोनी लड़की
किसी बूढ़े की बुझी नज़रों में
उभर रहा होगा अभी
अगली फसल
और पिछले कर्ज़ के बीच से
जवान बेटी की ससुराल का रास्ता

मेरे पड़ोस की बूढी रशीदन
अब तक रो चुकी होगी
पिछले दंगे में मारे गए
अपने जवान बेटे के लिए
बरसों से घर लौटकर नहीं आए
अपने कमाऊ पति को
एक और चिट्ठी लिख चुकी होगी
बुधिया की मां
शराबी पति की मार खाकर
अब तक सो गई होगी लछमी भौजी
नशे में धुत्त किसी ग्राहक के आगे
आहिस्ता-आहिस्ता
कपड़े उतार रही होगी
बाई टोले की मुन्नीबाई
औलाद के लिए परबतिया डायन
जला आई होगी दीया
गांव के भुतहा कुएं के पास

मंदिर में
भगवान को बंद कर सुरक्षित
अब तक घर लौट गए होंगे
भोला पंडित

लिखी जा रही होंगी कहीं कविताएं
जम चुकी होगी कहीं
सुर और संगीत की महफ़िलें
मादक संगीत पर कहीं
थिरक रहे होंगे जवान जिस्म
हो रहा होगा कहीं किसी बच्ची का
सामूहिक बलात्कार
दहेज़ के लिए जिंदा जलाई जा चुकी होगी
कहीं कोई नवविवाहिता
बन रही होगी कहीं बारूदी सुरंग
आतंकवादी हत्याएं कर रहे होंगे
कश्मीर के किसी दूरदराज़ गांव में
देश के किसी दंगाग्रस्त शहर में
सुरक्षाबलों ने अब तक
संभाल लिए होंगे मोर्चें

इस वक़्त तक मेरी प्रेमिका
अपने पति को चूमकर
करवट बदल चुकी होगी

आधी रात की इस निस्तब्धता में
मेरे बेतरतीब ख़्यालों के साथ
मेरे कमरे के झरोखे की
एक नन्ही-सी चिड़िया
तब से फड़फड़ाए जा रही है पंख
जैसे टाइप कर रही है
इस उदास मौसम के खिलाफ़
अपना संक्षिप्त वक्तव्य
कल के अखबारों के लिए !

-ध्रुव गुप्त