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कद्रदान

मेरी उम्र का कद्रदान
मेरा बचपन है
चखरी, पतंग, साइकिल
सब बेशकीमती हैं
मैं बोली लगाने बैठा
जब कीमती सामानों की
चखरी, पतंग छुपा के कांख में
बचपन आँगन के दरख्त में
चुपके से जा दुबका
खरीददार भी भाव न लगा पाए
बोली, तो दूर की बात है
मेरी दौलत को नजर से न तौल पाए

मैं और वो अब संग ही रहते हैं
वो डायरी के पन्नों में सलामत है
मेरी जिंदगी की उधेड़ बुन में
इस कश्मकश में भी
मेरी उम्र का कद्रदान
मेरा बचपन है

– सचिन बिल्लोरे “आस”