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औरत

औरत… आख़िर तू है कौन?
अबला है, सबला है
अहंकार है, या समर्पण है
तेरे गहरे बहुत गरल पलता है
जो तुझे ही दिन रात डसता है
तेरे आँचल में परिवार संभलता है
तू सहाय असहाय में झूलती है
बिस्तर की सलवटों में ख़ुद को ढूँढती है
हर मोर्चे पर तू सजक प्रहरी है
फिर भी तेरी स्थिति समाज में दोहरी है
भीड़ में देह पर पड़ते हाथ सहती है
फिर भी आत्मा को जीवित रखती है
नौकरी, चौका चूल्हा सब करती है
सेज पर पति के लिए रंभा बनती है
बहुत खोजती हूँ तेरी गहरी… जड़ें..
पर नहीं मिल पाता है तेरा ओर छोर

औरत…. आखिर तू है क्या……
पति की बाहों में, प्यार की बातों में
तू सुबह के नाते का प्लान करती है
बच्चों के लिए तेरी ममता तड़पती है
ऑफिस में बैठी फाइलों में सिर घुनती है
शाम को क्या बनेगा ये भी बुन लेती है
मै आधुनिक हूँ ये आलाप लगाती है
फिर भी सारा जीवन गृहस्थी को दे जाती है
कई पन्ने काले कर के भी तू अनबूझ सी है
औरत…आखिर तू किस मिट्टी की बनी है….

– गीतांजलि गिरवाल