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तुम्हारा साथ

तुम्हारा साथ
पेड़ की डाल पर झूल रहे
उस तूंबीनुमा घोंसले जैसा है
जिसे गूंथा है बया ने
बड़ी चाह से

लहराती-इठलाती फ़सल जैसा है
जिसे बोया है किसान ने बड़ी मशक्कत से

तुम्हारा साथ
उस क्यारी जैसा है
जिसे रोपा है माली ने बड़े करीने से

गंगा-जमुनी तहज़ीब जैसा है
गाहे-बगाहे दी जाती हैं
अब भी मिसालें जिसकी

तुम्हारा साथ…
अल्हड़ बहती नदी को
बिना तैरे पार करने जैसा है

एक उदास शाम
इंडियन कॉफ़ी हाउस में बैठ
अनपढ़ी किताबों को पढ़ने जैसा है

तुम्हारा साथ
जाम में फंसे यमुना-पार के मज़दूरों का
पुरानी दिल्ली से
घर जल्दी पहुँचने की ललक जैसा है

उम्रभर किरीटी-तरु से
वीणा बनाने वाले वज्रकीर्ति की
हठ-साधना जैसा है

तुम्हारा साथ
कबीर की उलटबाँसी, तुलसी की चौपाई
ख’याम की रुबाई, खुसरों की पहेली
और नीरज के गीत जैसा है

पाश, लोर्का, मीर, ग़ालिब
मोमिन, दाग़, की
कविता-ग़ज़ल जैसा है

जो उतर जाती है
कहीं गहरे
कहे-अनकहे।

– आमिर विद्यार्थी