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आज़ादी

यूँ तो हम सब आज़ाद हैं,
क्या आज़ादी यह सच्ची हैं ।
सच्ची शायद बातों में होगी,
हक़ीक़त कुछ और ही हैं

सड़को पे तो देखा होगा,
किस तरह हम आजाद हैं
घड़ी के काटे गिनते रहते,
कितना वक्त हम आजाद हैं ।

आज़ादी तो परिंदो में हैं ,
वो ऊंची उड़ाने जो भरते हैं ।
हम तो सिमटे रहते हैं ,
चार दीवारों की कफन में।

यूँ तो शराफ़त का मुख़ौटा सब पर हैं
पर सवाल तो हमारे लिबास पर हैं।
फिर होता है कुछ अगर तो, उंगलिया हम पर ही उठती हैं ,
तुम वहाँ पर थे, वो गलती भी तुम्हारी हैं ।

कहने को तो हम आजाद हैं ,
वो आज़ादी शायद पन्नो में होगी,
हक़ीक़त तो कुछ और ही हैं।

– सिमरन मूंजवानी