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फर्क

छा जाती है
बदली कभी
मन की धरा पर
और
अगले ही पल
ओझल हो जाती है
बिन बरसे ही!

धरा की बैचेनी तब
बरसती है
वेदना बनकर वहीं कहीं

अपना मान लेने
और
अपनाने में बेहद
फर्क होता है शायद

– शालू जैन