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ये कैसी ज़िंदगानी है

सुबह से शाम तक काम के बोझ में
उलझनों में , कोशिशों के दौर में
अपनों से तकरार में , बुझी रफ्तार में
कशमकश का खजाना है , गुमनाम जमाना है
संघर्ष की कहानी है
ये कैसी जिंदगानी है

झगडे है फसाद है कहीं धर्मो के अहंकार है
गरीबी बिकाऊ है तो अमीरों के नखरे हजार है
हर तरफ भ्रष्टाचार है ,कई तो इसमें भी गद्दार है
कौन इसका जिम्मेदार है
अब तो आंसू भी झूठा पानी है
ये कैसी जिंदगानी है

कमजोर सा समाज है धांधली का राज है
मूक बधिर कानून है, जनता पिसती हर बार है
दिखावे की हुंकार है , पर सब ही समझदार है
दिन भर ये बवाल है फिर भी ये सवाल है
क्या किसी को आत्मग्लानि है
ये कैसी जिंदगानी है

– नायाब हुसैन