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अस्तित्व

कली हूँ, सुखद स्वप्न की परी हूँ मैं
फूलों के रस की भांति सजी, गजरे की लरी हूँ मैं
धूप हूँ, छाया हूँ, लगी पतझड़ की झाड़ भी मैं
नहीं तो सावन की पहली बून्द हूँ मैं
डूबना चाहती हूँ उस बून्द की अथाह गाद में
फिर निकल कर बहना है किसी नदी की धार में
फिर क्या..मिल जाऊं, आंसुओं के बहाव में
मैं हूँ क्षार भी, अपनी विभा की गर्व मैं
कभी देखो तुम मुझे, क्या नहीं लगता
हूँ मातृत्व की पर्याय मैं
आशा हूँ, नीले व्योम की जैसी,
उसमें तारों की भांति, प्रेम भी मैं
वात्सल्य भी मैं, धरा भी मैं
रूप और श्रृंगार भी मैं
कहूं क्या? और…कौन हूँ मैं?

-स्मृति