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अधर पलकों पर प्रिये

मानवी सुनो!
दिन का कोलाहल
रैन के आगोश में
शून्य में जब होने लगे परिवर्तित,
मृगतृष्णा की भाँति
झिलमिल-झिलमिल करे
नींद में तुम्हारी अखियाँ,
कौंधने लगे मन-तरंग
फूटने लगे कोपलें नवरंग
मथने लगे तन को पनघट पर
कही गयी सखियाँ की बतियाँ,
बुला लेना तुम प्रिये
मुझे अपने अधर पलकों पर
बन निशाचर
करेंगे भृमण करेंगे वन-प्रान्तर
जाएंगे मोहपाश
में बंध ओढ़ तम चादर ,
सहचर जो हैं हम दोनों
एक दूजे के
आदि भी और अंत भी…..

– सुरेश वर्मा