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बसन्त

घर के चूल्हे-चौके
पिता की घुड़कियों से मुक्त
हो आयी थीं आप
गली के मुहाने से मुड़कर
अर्द्ध-जंगलनुमा कंटीले झाड़ियों की ओर
एक अधखिली कली युक्त
काफी दिनों बाद
बसन्ती फूलों की तरह
मुस्काई थी, सकुचाई थी

सुबह की ताजी और स्नेहिल
रौशनी से प्रस्फुटित हो उठी थीं आप
खोखले और बरसों बाट जोहते
जीर्ण-शीर्ण काया से
जंगली लता सी लिपट
मुझे हरा कर दिया था आपने

महक उठी थी फ़िज़ा
बहक उठा था देह के बीच
बहता बसंती बयार
जी गए थे एक जिंदगी
‘लू’ के गर्म थपेड़े की चपेट में
घिरने से पहले,
हम दोनों बसन्त हो गए थे…..

– सुरेश वर्मा