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गज़ल

वक्त के साथ हर एक मंजर बदलते रहते हैं,
यहाँ शहरों में सुकून के दर बदलते रहते हैं।

आहिस्ता खत्म होता है, सिलसिला मतलब का,
कुछ नहीं बचने पर, दोस्ती के घर बदलते रहते हैं।

तर्जुमा लाख चाहे कर दो किसी सच्ची लिखावट का,
जो मौसमी परिंदे हैं, वो हर पल शजर बदलते रहते हैं।

घूमता है हर घड़ी जिगर में सीसा लेकर वो,
सो हम भी सीने में अपने पत्थर बदलते रहते हैं।

नज़रें ओढ़कर चलते हैं कुछ लोग यहाँ पर भी,
हूसुल दिखने पर झट से वो, अपनी नज़र बदलते रहते हैं।

– पंकज कसरादे