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भावनाएं

इस बस की खिड़की से आती हवाएं,
किसी की यादें ताज़ा तो कर रही हैं,
लेकिन वो कोई मोहब्बत नहीं
एक साहित्यकार की कोई अमर रचना,
जिसकी लिखावट से प्रेरित होकर
कागज़ पर सवालों में उलझी कलम को
हिंदी की किताबों की तरफ झाँकना सिखाया था।
नहीं पता वो पन्ना किस हवा में उड़ गया,
उसकी लिखावट कहाँ छूमंतर हो गई।
लेकिन इस बस की हवा के सहारे
उस लिखे हुए का एहसास आया।

जिस परवरिश में हम पले बढ़े
वो मायने रखना कम कर देता है
जब सफलतम ऊंचाईयों की छुअन
हमारे अंदर रह जाती है,
एक टीस बनकर,
ये हवा के थपेड़ों का रुख अलहदा है।
ईमान से! कसम से! माँ कसम !
तुमसे भी ज़ुदा, तुम हो या नहीं,
ये एहसास अब ये जगह नही कराती…
सिवाए मेरे एहसास के,
एक सूखे हुए पलक की नमी में,
तुम्हारे अनगिनत इंतज़ार!

–  कार्तिक सागर समाधिया