बाहर नहीं हैं महफ़ूज़
उन्हें घर में भी डर सताता है
रात के अंधेरों में दिल उनका
सहम सा जाता है
दिन के उजालों में भी मगर
खौफ कहां कम हो पाता है
न गिरने से, न चोट खाने से
और न ही मरने से
उन्हें तो डर लगता है
घूरती हुई वहशी निगाहों से
ये घूरती हुई निगाहें
केवल घूरती ही नहीं हैं उन्हें
चीर देती हैं उनके जिस्म के
एक-एक हिस्से को
बींध देती हैं उनके जिस्म पर पड़े
एक-एक कतरे को
-ऋषभ सक्सेना