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बूढ़ा दरख्त

बारिश की बेरुखी
और चिलचिलाती धूप में
वो बूढ़ा दरख्त सूख गया है
साखों पर बने घोंसले उजड़ गए
उजड़े घोंसलों के बाशिन्दे/परिन्दे
नए ठिकाने/आबाद दरख्त
की तलाश में उड़ चले
बूढ़ा दरख्त तन्हा रह गया
आंसू बहाता, चिलचिलाती धूप में।

सोच ही रहा था, इस ओर
शायद ही अब कोई लौटकर आए
तभी उसे दूर दो अक्स दिखे
कुल्हाड़ी और आरी लिए
ये वही हैं, जिन्हें कभी उसने
आशियाना बनाने के लिए लकड़ी
जीने के लिए हवा-पानी-खाना दिया
वो बूढ़ा दरख्त इसी सोच में
और सूख गया
दुनिया से ‘अभी भी काम का हूं’ कहकर
अलविदा कह गया, चिलचिलाती धूप में।

– लोकेन्द्र सिंह