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चाय और तुम

थके हारे दिन में अचानक,
नज़र तुम पर पड़ गयी
फिर क्या था मुझे तुम ,
चाहिये थी बस तुम
मैं आंखे भर के
देखता रहा
तुमसे आती ख़ुश्बू
तुम्हारी आँखों मे हँसी
और बचकानी हरकतें
और खिलखिलाती आवाज़
तुम, तुम ना बिल्कुल
चाय के जैसी हो
या चाय तुम जैसी है

मुझे याद है बारिश
सही सुना बारिश
जिसे तुम
खुद से भी ज़्यादा
प्यार करती थी,
अब भी करती हो
तुम्हारे लिबास की ख़ुश्बू
तुम्हारा भीगना बेपरवाह
और सुकून सब कुछ
भीगते हुये,
वो अटखेलियां
और बिना मलाल के
सारी छींके और
उस छोटी नाक पर गुस्सा
उफ्फ़!
शायद ही देखने को
मिले अब मुझे
पता है तुम्हे चाय भी
बिल्कुल ऐसी ही है
मेरे लिये आजकल
गर्म, गुस्सैल, नाजुक, ज़रूरी
इसलिये
तुम, तुम ना बिल्कुल
चाय के जैसी हो
या चाय तुम जैसी है ।

– आयुष खेडले ‘अश’