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बचपन

खूब थे वो दिन जब
खिलौना गाड़ी खींचा करते थे
पानी से खेलने खातिर
हम बगीचा सींचा करते थे

नकली चाँदी की चेन
पहनकर डांसिंग होती थी
न इंजन न पैडल था
बस चक्के की साईकिल होती थी

रिमोट वाली वो कार
जब रखी देखते ठेले में
पसर जाते थे हम अक्सर
उस फागुन वाले मेले में

गड़ा गेंद खेलते थे
मोहल्ले को खटका करते थे
सरपट दौड़ लगाकर अक्सर
बैलगाड़ी पर लटका करते थे

कंचों गिल्ली डंडो से
अपनी संगत होती थी
स्कूल से भग के जाते थे
जब कहीं पर पंगत होती थी

पोसम्पा भाई पोसम्पा
जैसे गाने गाया करते थे
मंदिर तो बस हम
प्रसाद खाने जाया करते थे

चोर पुलिस का खेल
खेली थी जिन बंदूको से
अब तो बस हमको
वो मिलती है संदूको से

इक रोज जब गाँव की
उन गलियों से जाने लगा
रूठा सा बैठा चौराहे पर
जाने क्यों नजर आने लगा

खो गया था उस रोज मैं
उन पुराने खेलों में
कैद हो गए थे जो अब
आधुनिकता की जेलों में

कागज की नांव बनाने वाला
अब तो सावन लौट के आ
सूनी गलियाँ बुला रही है
मेरे बचपन लौट के आ..

– नीलेश बोरबन